धर्म, एक ऐसा शब्द है जो हर व्यक्ति के जीवन में किसी न किसी रूप में मौजूद होता है। यह आस्था, नैतिकता और मानवीय मूल्यों का आधार है। धर्म न केवल व्यक्तिगत आध्यात्मिकता को विकसित करता है, बल्कि समाज को एकजुटता और सद्भावना के सूत्र में बांधता है। लेकिन यह प्रश्न सदैव विचारणीय रहा है कि क्या धर्म को प्रदर्शित करना आवश्यक है? क्या धर्म की महत्ता प्रदर्शन और दिखावे से मापी जा सकती है?
धर्म का वास्तविक अर्थ
धर्म का अर्थ है सत्य, करुणा, न्याय, और कर्तव्य। यह न तो किसी विशेष कर्मकांड तक सीमित है और न ही किसी बाहरी प्रदर्शन का मोहताज। धर्म का उद्देश्य व्यक्ति को आत्मा से जोड़ना और उसे अपने भीतर की सच्चाई से परिचित कराना है।
गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं:
"सर्व धर्मान परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।"अर्थात, सभी आडंबर छोड़कर केवल ईश्वर की शरण में जाओ।
क्या धर्म का प्रदर्शन आवश्यक है?
धर्म प्रदर्शन का विषय नहीं, बल्कि आंतरिक अनुभूति का विषय है। किसी व्यक्ति का धर्म उसके आचरण और व्यवहार में दिखना चाहिए, न कि केवल बाहरी आडंबर और रीति-रिवाजों में। उदाहरण के लिए, यदि कोई व्यक्ति मंदिर में नियमित पूजा करता है, लेकिन अपने आस-पास के लोगों के प्रति क्रूर और स्वार्थी है, तो उसका धर्म प्रदर्शन मात्र बनकर रह जाता है।
वहीं दूसरी ओर, एक व्यक्ति जो बिना किसी दिखावे के जरूरतमंदों की मदद करता है, अपने कर्तव्यों का पालन करता है और सत्य का अनुसरण करता है, वह असल में धर्म का पालन करता है।
प्रदर्शन के दुष्प्रभाव
धर्म के प्रदर्शन से समाज में पाखंड और असमानता बढ़ती है।
पाखंड का जन्म: कई बार लोग धर्म का दिखावा करके समाज में अपनी छवि सुधारने का प्रयास करते हैं। ऐसे लोग धर्म का वास्तविक अर्थ भूल जाते हैं।
असमानता: बड़े धार्मिक आयोजन और प्रदर्शन अक्सर आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए बोझ बन जाते हैं। उदाहरण के लिए, महंगे शादी-विवाह में धार्मिक कर्मकांडों का प्रदर्शन गरीब परिवारों पर अनावश्यक दबाव डालता है।
धर्म का सच्चा स्वरूप
धर्म का सच्चा स्वरूप सेवा, करुणा और कर्तव्यनिष्ठा में निहित है। महात्मा गांधी ने कहा था:
"ईश्वर की सेवा का सर्वोत्तम मार्ग दूसरों की सेवा करना है।"
गांधीजी ने अपने जीवन में धर्म को कभी प्रदर्शन का विषय नहीं बनाया, बल्कि उसे अपने आचरण और सेवा कार्यों के माध्यम से व्यक्त किया।
स्वामी विवेकानंद का प्रेरक उदाहरण
स्वामी विवेकानंद का जीवन इस बात का उदाहरण है कि धर्म प्रदर्शन का नहीं, बल्कि आत्म-अनुभूति का विषय है। 1893 में शिकागो धर्म संसद में उन्होंने भारतीय संस्कृति और धर्म का जो परिचय दिया, वह उनके शब्दों में नहीं, बल्कि उनके व्यक्तित्व और आचरण में झलकता था।
धर्म इंसान की आस्था और कर्तव्य का विषय है, न कि प्रदर्शन और दिखावे का। इसे अपने आचरण, सेवा, और सत्य के प्रति निष्ठा से व्यक्त किया जाना चाहिए। धर्म का सार यही है कि हम मानवता को सर्वोपरि रखें और अपने कर्मों से दूसरों के लिए प्रेरणा बनें।
इसलिए धर्म को प्रदर्शित करने की आवश्यकता नहीं है, इसे जीने और अनुभव करने की आवश्यकता है। सत्य और करुणा से भरा जीवन ही धर्म का वास्तविक परिचायक है।
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